रविवार, 21 मई 2017

संस्कृतं च संंगीतं च

संस्कृतं च संगीतं च
--- लीना मेहेंदळे
दि २१ मे २०१७

संस्कृत और संगीत दोनों ही विशिष्ट भारतीय शब्द है और उन दो विषयों को इंगित करते हैं जिनका आपस में घनिष्ठ संबंध है

मूल शब्द संस्कार से संस्कृत शब्द बना है संस्कार का अर्थ है ऐसी प्रक्रिया जिसमें सब कुछ अच्छा हो, सुफल हो प्रिय हो, गुणवान हो, सौंदर्यवान हो, नीतिवान हो ऐसी प्रक्रियाएँ अपने आप प्रकट नहीं होती वरन चिंतन के द्वारा उनकी अन्वेषणा की जाती है इस प्रकार चिंतन द्वारा संस्कार मनुष्य पर संस्कार ताकि उसका जीवन समाजोपयोगी हो, पशु व वृक्षों पर संस्कार ताकि वे दीर्घजीवी और आरोग्ययुक्त हो, इत्यादि हमारी परंपरामें आरंभसे ही है भाषा भी संस्कारित हुई तो संस्कृत बनी कभी-कभी एक उपालंभभरा वाद चलता है कि संस्कृत से प्राकृत भाषाएँ बनी या प्राकृत से संस्कृत दोनोंके पक्षमें तर्क दिए जा सकते हैं संस्कृत की प्राथमिकता के पक्ष में भी तर्क है हमारे सारे दर्शन, सारे ग्रंथ इस बात का इंगित करते हैं कि हमारे ऋषि मुनियोंमें सटीकता (exactitude) की परंपरा थी और क्यों न हो। जब सटीकता होती है तभी ज्ञान-वृद्धि की गति एवं व्याप्ति अतिशीघ्र हो सकती है इसी सटीकता के कारण कोई आश्चर्य नहीं कि हमारे ऋषि-मुनियों की भाषा अतिप्राचीन कालसे ही संस्कारित रही हो।

सटीकता और संस्कृति की इतनी गहराई से चर्चा करनेका कारण है इस देशमें जो संगीत उपजा है उसमें भी वही संस्कार और वही सटीकता है, वही सूक्ष्मातिसूक्ष्म विवेचन है यूं कहा जाए कि संस्कृत और संगीत दोनों ही प्रवृत्तियां एक जैसी ही हैं और एक दूसरे के पूरक भी इसी घनिष्ठ संबंधकी हम विस्तृत चर्चा करने जा रहे हैं

संस्कृत में भाषा की सटीकता के लिए कई संस्कार हुए जो हम प्रत्यक्षतः देख सकते हैं और सरलता से उसका आकलन भी कर सकते हैं हमारे व्याकरण की बातों को गौर से देखिए शब्दों के शब्दरूप, उनमें लिंग-भेद, वचन-भेद, द्विवचन का प्रयोग, काज्ञानके लिए क्रियाओंमें लकारों का प्रयोग, संधि व समास, तथा उपसर्ग और तद्धितादि प्रत्यय, बस इतनेसे ही व्याकरणके पाठ होते हैं लेकिन इनमेंसे प्रत्येक पाठ अपने आपमें विस्तृत है, नियमबद्ध है, और यही सुदृढता है जो संस्कृतकी सटीकताको संभाल कर रखती है

संस्कृतके व्याकरण शास्त्रके साथ ऋषि-मुनियों ने ध्वनि शास्त्र को भी समझा और उसका विस्तार से अध्ययन किया अनादि ब्रह्मांड में ध्वनि की उत्पत्तिसे ही सृजनका प्रारंभ हुआ इस रहस्यको हमारे ऋषियोंने अपने चिंतन द्वारा जाना। उन्हें तत्वचिंतन के साथ तत्वदर्शन भी हुआ तब उनकी पकड़में आया कि ध्वनि शास्त्र और शरीर शास्त्रके बीच साथ गहरा संबंध है। मनके भावोंके प्रकटीकरणके लिए चिंतनके स्तर पर चार सीढ़ियां हैं -- परा, पश्यंति, मध्यमा और वैखरी। परंतु शरीरके स्तरपर अक्षरो व नादका सृजन होता है शरीरके भिन्न भिन्न स्थानोंसे निकली अक्षर-ध्वनियां भिन्न भिन्न होती हैं

सी बात का आधार लेकर कुंडलिनी मार्गके चक्रों पर भिन्न-भिन्न अक्षरोकी उपस्थिति का दर्शन हमारे मनीषियोंने किया उस उस अक्षर के कंपन द्वारा उस उस चक्र को गुँजाने से जो अलग-अलग प्रभाव उत्पन्न होते हैं उनके अध्ययनसे मंत्र विद्याका जन्म हुआ इसी रहस्यसे गान विद्याका भी जन्म हुआ। वैखरी वाणीमें जो ध्वनि उच्चारण होता है उसके आधार पर वर्णमालाकी निश्चिती हुई और वर्गीकरण भी इस प्रकार ऋषियोंने सोलह स्वरों की अनुभूति की तत्पश्चात् व्यंजनोंमें भी कंठ वर्गके व्यंजन, तालव्य, मूर्धन्य, दंत्य और ओष्ठ वर्ण के व्यंजन इत्यादि वर्गीकरणसे हमारी वर्णमाला बनीका प्रचलन समस्त दक्षिण आशिया खंडके सभी देशोंमें रहा आज भी कोरियातक की भाषाओंमें, जैसे नेपाली, र्मी, था, भूटानी, तिब्बती, सिंहली आदि में भी यही वर्णमाला प्रचलित है

व्याकरणशास्त्र मंत्रशास्त्रके साथ साथ संस्कृतका छंदशास्त्र भी अत्यंत व्यापक है नाद, लय, ताल, छंद, आदि के उद्गाता स्वयं भगवान शिव ,हेये है इन्हीं के कारण सौंदर्यकी तथा ललित कलाओंकी सृष्टि होती हैयके साथ अपने आप ही गायन, वादन और नृत्य भी जुड़ जाते हैंका गहन संबंध मनोउर्जा के साथ है छंद शास्त्रके साथ-साथ संगीत गायनकलाका भी उदय और विस्तार हुआ

षियोंने प्रकृति के रहस्यों का वे लेते हुए जिन अगणित ऋचाओंका दर्शन किया उन्हें अगली पीढ़ियों तक पहुंचानेके हेतु गान-परंपरा एक सशक्त माध्यम बनी जनमानस के आकलन के लिए व्याकरण, ध्वनि-शास्त्र अथवा छंद-शास्त्र की अपेक्षा गायन विद्या अधिक सुगम एवं सरल सिद्ध हुई इसी कारण परा पश्यंती इत्यादि अवस्थाओंकी देवता जो वाग्देवी हैं, उनका मूर्त रूप सदैव वीणाके साथ ही होता है वीणा, डमरु एवं वेणु -- ऐसा माना जाता है कि सभी वादयों तथा संपूर्ण गायन कलाकी उत्पत्ति न्ही तीन वादयोंसे हुई है हमारे ग्रंथोंमें गान विद्यासे संबंधित गंधर्व-, सिद्ध-गण, यक्ष-गण तथा अप्सरा-गण इत्यादि गणोंका वर्णन है जिन्होंने गान कला का अध्ययन, विस्तार एवं प्रचार किया इनके प्रमुख अधिपतिके रूपमें गणपति प्रतिष्ठित हैं

ऋग्वेद आदि वेदोंको पीढ़ी-दर-पीढ़ी पहुंचाने के लिए श्रुति परंपरा चली उसमें अशुद्धता आनेका संकट था अशुद्ध मंत्रों से फलकी प्राप्ति नहीं हो सकती -- ठीक उसी प्रकार जैसे अव्यवस्थित रूप से की गई प्रक्रियाओंसे अच्छा उत्पादन नहीं निकल सकता अशुद्धताके संकटको टालनेके लिए एक अद्भुत तरीकेकी रचना हुई ऋचाओंमें उदात्त, अनुदात्त और स्वरित ध्वनियों के आचरण के रण उनकी गेयता बढी और मंत्र सामर्थ्य भी फिर उन ऋचाओंको पदोंमें विभक्त किया गया उनकी पाठ विधियां बनी जो सरलसे कठिन और कठिनसे कठिनतर होती गईं। इस प्रकार पदपाठ, क्रमपाठ, जटापाठ और घनपाठ का चलन प्रारंभ हुआ पदपामें हर पदको अपनी स्थितिनुसार गाया जाता है परंतु क्रमपामें दो पदोंको उलट फेर कर गाया जाता है जटापाठमें तीन पदोंको और घनपाठमें चार पदोंको उल्टा पुल्टा कर गाया जाता है इस शास्त्रके साथ ही किसी पडावपर सप्तसुरोंका भी प्रकटीकरण हुआ होगा ऐसी मेरी मान्यता है

हमारे ग्रंथ बताते हैं कि स्वरोंकी स्थितियोंको प्राणियोंके स्वरोंके साथ सिद्ध किया गया है कोकिलके स्वरसे पंचम, हाथीके स्वरसे धैवत और मयूरके स्वरसे निषाद सिद्ध होते हैं इसी प्रकार ऋषभ, गंधार और मध्यम भी सिद्ध होते हैं षड्ज की उत्पत्ति अन्य छः सुरोंसे से होती है इसलिए उसे षड्ज कहा गया है।

स्वरोंको कंठमें ध्रुवतासे स्थापित करने के लिए हर एक स्वरकी साधना आवश्यक है इसी प्रकार र, राग एवं सौंदर्य की उत्पत्ति के लिए उनका उलटफेर गायन भी कंठस्थित होना चाहिए इस उलटफेरका क्रम भी दो स्वर, तीन स्वर और चार स्वरों के साथ उसी प्रकार गाया जाता है जैसी वेदोंके पदोंकी उलटफेर करनेकी पद्धति है जैसे पदपाठ, क्रमपाठ, जटापाठ और घनपाठ की सिद्धता होती है उसी प्रकार सप्तसुरोंकी आलाप एवं तानकी विधियाँ हैं। 

अतएव कहा जा सकता है कि हमारे मनीषियोंने पूरी तरह सोच विचार कर ही गानसाधना और ज्ञानसाधनाको एक दूसरेका पूरक पाया, उनकी एकत्रित उपासना की विधियां नियुक्ति कीं। उनका स्मरण, उनका अभ्यास, अभिव्यक्ति और अनुभूति एक साथ गुथे हुए हैं। जहाँ वेदोंमें निहित ज्ञानसाधना मानवको मोक्ष तक ले जाती है, वहीं संगीत-साधना भी समाधि-दर्शनकी अनुभूति दे जाती है। इस प्रकारसे भारतकी संस्कृति, भारत की संस्कृतोद्भव भाषाएं तथा भारतीय संगीतका एक अभिन्न नाता है, जिसका सही-सही आकलन हमने शायद अभी तक नहीं किया है हमारा सेमिनार इस दिशा में आगे भी कार्यरत रहे, शोधप्रवर्तक बने और सफल होता चले यही शुभकामना

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